सामान्यत: व्यक्ति काे कितने घंटे नींद आवश्यक है ?
वर्तमान संघर्षपूर्ण जीवन पद्धति, पारिवारिक अथवा कार्यालय में तनाव आदि के कारण अधिकांश लोगों को शांत नींद लगना कठिन हो गया है । शांत नींद न लगे, तो अगले दिन दिनचर्या पर अनिष्ट परिणाम होता है । निद्रा संबंधी समस्या को हल करने के लिए कई लोग चिकित्सक के पास जाते हैं । नींद के लिए डॉक्टर औषधि देते हैं और व्यायाम के कुछ प्रकार सुझाते हैं । ‘एलोपैथी’ इससे आगे कोई विचार नहीं करता । शांत नींद न लगने की समस्या का मूल कारण है, निद्रा संबंधी प्रकृति-नियम और धर्म में बताए निद्रा संबंधी आचार का पालन न करना ।
१. कलियुगी मानव-जीवन की विशेषताएं
कलियुग में निद्रा, भय एवं विकृति, इन तीन प्रमुख प्रक्रियाओं से मानव का जीवन क्रियाशक्ति की एक शृंखला में बद्ध है ।
२.निद्रा की उत्पत्ति एवं अर्थ
अ. उत्पत्ति : पौराणिक मत है कि निद्रा ब्रह्म का स्त्री-रूप है एवं उसकी उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई है ।
आ. अर्थ : मेध्यामनःसंयोगः अर्थात ‘मेध्या’ नामक नाडी एवं मन का संयोग है ‘निद्रा’ ।
इ. सतेज निद्रा : उचित आहार से जीव उचित निद्रा की ओर बढता है, इसी को ‘सतेज निद्रा’ कहते हैं । निद्रा में भी जब जीव का अंतर्मन सात्त्विक विचारों के झूले में झूलने लगता है, तब नींद में भी उसकी अंतर्मन से साधना जारी रहती है । ऐसी साधना से मनुष्य का मनःपटल शुद्ध होने से वह मनोलय की दिशा में यात्रा आरंभ करता है ।
३. निद्रा का महत्त्व
शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के लिए आहार समान ही निद्रा की भी आवश्यकता होती है । दिनभर की गतिविधियों से शरीर एवं इंद्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है । इससे उबरने के लिए विश्राम की आवश्यकता होती है । विश्राम की यह प्राकृतिक अवस्था है, निद्रा । सुख-दुःख, स्थूलता-कृशता, ज्ञान-अज्ञान, आरोग्य एवं बल, ये समस्त बातें निद्रा पर निर्भर होती हैं ।
४. निद्रायुक्त कर्म की विशेषताएं तथा ऐसे कर्मों का मानव-जीवन पर दुष्परिणाम
अ. ‘निद्रा, यह मूलतः तमो गुणी प्रक्रिया है; क्योंकि वह रात्रि के तमो गुणी प्रहर में ली जाती है ।
आ. तमो गुणी निद्रा से अंतःपटल पर उभरने वाली विकृत विचार-तरंगें जीव के मन पर भय का संस्कार करती हैं ।
इ. भययुक्त संस्कार से चंचलता उत्पन्न होने के कारण, इस भाव से उच्छृंखलतापूर्वक किए जानेवाले कर्म वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों का प्रक्षेपण करते हैं । इससे वातावरण दूषित बनता है ।
५. निद्रा की कालावधि
व्यक्ति की आयु, त्रिगुण और प्रकृति के अनुसार निद्रा की कालावधि में परिवर्तन होता है ।
अ. आयुनुसार : बच्चों के लिए प्रतिदिन १० से १२ घंटे, युवकों के लिए ८ घंटे, प्रौढों के लिए ७ घंटे और वृद्धों के लिए ४ से ६ घंटे नींद आवश्यक है ।
आ. त्रिगुणानुसार : सत्त्वगुणी व्यक्ति के लिए ४ से ६ घंटे, रजोगुणी व्यक्ति के लिए ८ घंटे और तमोगुणी व्यक्ति के लिए १० से १२ घंटे नींद की प्रतिदिन आवश्यकता रहती है ।
इ. प्रकृतिनुसार :
१. वात प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद नहीं लगती । निद्रा में भी वह अस्वस्थ रहता है एवं हलकी-सी भी ध्वनि होने पर उसकी नींद तुरंत खुल जाती है ।
२. पित्त प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद नहीं लगती । उसके लिए प्रतिदिन ८ घंटे नींद आवश्यक रहती है ।
३. कफ प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद लगती है तथा वह ८ घंटे से भी अधिक समय सोता है ।
संदर्भपुस्तक : सनातनका सात्विकग्रन्थ ‘शांत निद्राके लिए क्या करें ?‘
Courstsey :HinduJanajagruti_Samiti
वर्तमान संघर्षपूर्ण जीवन पद्धति, पारिवारिक अथवा कार्यालय में तनाव आदि के कारण अधिकांश लोगों को शांत नींद लगना कठिन हो गया है । शांत नींद न लगे, तो अगले दिन दिनचर्या पर अनिष्ट परिणाम होता है । निद्रा संबंधी समस्या को हल करने के लिए कई लोग चिकित्सक के पास जाते हैं । नींद के लिए डॉक्टर औषधि देते हैं और व्यायाम के कुछ प्रकार सुझाते हैं । ‘एलोपैथी’ इससे आगे कोई विचार नहीं करता । शांत नींद न लगने की समस्या का मूल कारण है, निद्रा संबंधी प्रकृति-नियम और धर्म में बताए निद्रा संबंधी आचार का पालन न करना ।
१. कलियुगी मानव-जीवन की विशेषताएं
कलियुग में निद्रा, भय एवं विकृति, इन तीन प्रमुख प्रक्रियाओं से मानव का जीवन क्रियाशक्ति की एक शृंखला में बद्ध है ।
२.निद्रा की उत्पत्ति एवं अर्थ
अ. उत्पत्ति : पौराणिक मत है कि निद्रा ब्रह्म का स्त्री-रूप है एवं उसकी उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई है ।
आ. अर्थ : मेध्यामनःसंयोगः अर्थात ‘मेध्या’ नामक नाडी एवं मन का संयोग है ‘निद्रा’ ।
इ. सतेज निद्रा : उचित आहार से जीव उचित निद्रा की ओर बढता है, इसी को ‘सतेज निद्रा’ कहते हैं । निद्रा में भी जब जीव का अंतर्मन सात्त्विक विचारों के झूले में झूलने लगता है, तब नींद में भी उसकी अंतर्मन से साधना जारी रहती है । ऐसी साधना से मनुष्य का मनःपटल शुद्ध होने से वह मनोलय की दिशा में यात्रा आरंभ करता है ।
३. निद्रा का महत्त्व
शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के लिए आहार समान ही निद्रा की भी आवश्यकता होती है । दिनभर की गतिविधियों से शरीर एवं इंद्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है । इससे उबरने के लिए विश्राम की आवश्यकता होती है । विश्राम की यह प्राकृतिक अवस्था है, निद्रा । सुख-दुःख, स्थूलता-कृशता, ज्ञान-अज्ञान, आरोग्य एवं बल, ये समस्त बातें निद्रा पर निर्भर होती हैं ।
४. निद्रायुक्त कर्म की विशेषताएं तथा ऐसे कर्मों का मानव-जीवन पर दुष्परिणाम
अ. ‘निद्रा, यह मूलतः तमो गुणी प्रक्रिया है; क्योंकि वह रात्रि के तमो गुणी प्रहर में ली जाती है ।
आ. तमो गुणी निद्रा से अंतःपटल पर उभरने वाली विकृत विचार-तरंगें जीव के मन पर भय का संस्कार करती हैं ।
इ. भययुक्त संस्कार से चंचलता उत्पन्न होने के कारण, इस भाव से उच्छृंखलतापूर्वक किए जानेवाले कर्म वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों का प्रक्षेपण करते हैं । इससे वातावरण दूषित बनता है ।
५. निद्रा की कालावधि
व्यक्ति की आयु, त्रिगुण और प्रकृति के अनुसार निद्रा की कालावधि में परिवर्तन होता है ।
अ. आयुनुसार : बच्चों के लिए प्रतिदिन १० से १२ घंटे, युवकों के लिए ८ घंटे, प्रौढों के लिए ७ घंटे और वृद्धों के लिए ४ से ६ घंटे नींद आवश्यक है ।
आ. त्रिगुणानुसार : सत्त्वगुणी व्यक्ति के लिए ४ से ६ घंटे, रजोगुणी व्यक्ति के लिए ८ घंटे और तमोगुणी व्यक्ति के लिए १० से १२ घंटे नींद की प्रतिदिन आवश्यकता रहती है ।
इ. प्रकृतिनुसार :
१. वात प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद नहीं लगती । निद्रा में भी वह अस्वस्थ रहता है एवं हलकी-सी भी ध्वनि होने पर उसकी नींद तुरंत खुल जाती है ।
२. पित्त प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद नहीं लगती । उसके लिए प्रतिदिन ८ घंटे नींद आवश्यक रहती है ।
३. कफ प्रकृति के मनुष्य को गहरी नींद लगती है तथा वह ८ घंटे से भी अधिक समय सोता है ।
संदर्भपुस्तक : सनातनका सात्विकग्रन्थ ‘शांत निद्राके लिए क्या करें ?‘
Courstsey :HinduJanajagruti_Samiti