जिन्‍दगी भर के लिए कोई पछतावा न रह जाए।


एक सुथार बहुत सालों से एक कम्पनी में मकान बनाने का काम करता था। लेकिन अब वह बहुत बुढ़ा हो चला था और उससे मकान बनाने का मेहनत भरा काम नहीं हो पाता था। इसलिए उसने अपने काम से हमेंशा के लिए निवृत होने का मन बनाया ताकि अपनी बची हुई थोड़ी बहुत जिन्‍दगी वह अपने परिवार वालों के साथ व्‍यतीत कर सके।

अत: वह अपने शेठ के पास गया और अपने निवृत होने के बारे में उसे बताया। उसकी बात सुनकर शेठ को मन ही मन थोड़ा दु:ख हुआ क्‍यों‍कि वह सुथार उस शेठ का बहुत ही ईमानदार और अनुभवी कारीगर  था। लेकिन फिर भी सेठ  ने उस सुथार से कहा, “ठीक है। मैं आपकी परेशानी समझ सकता हुँ लेकिन क्‍या आप निवृत होने से पहले एक आखिरी मकान बनायेंगे?“

अपने सेठ  का मान रखते हुए उसने अन्तिम मकान बनाने के लिए अपनी सहमति दे दी।

चूंकि वह जल्‍दी से जल्‍दी उस मकान को बनाकर पूरा कर देना चाहता था, इसलिए उसने कई तरीके अपनाए और अधूरे प्रयास करते हुए बे-मन से उस मकान को जल्‍द से जल्‍द बनाकर तैयार कर दिया।


जब मकान बनकर तैयार हो गया, तो शेठ उस मकान का मुहावना  करने के बहाने मकान को देखने आया सुथार के हाथ में उस मकान की चाबी देते हुए कहा, “यह मेरी तरफ से आपका निवृत होने पर ये Gift है।“

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क्‍या आप अन्‍दाजा लगा सकते हैं कि जब शेठ ने उस मकान की चाबी, उस निवृत होने वाले सुथार को दी होगी, तब उसे अपने बनाए गए उस आखिरी मकान के प्रति ये सोंचकर कितना अफसोस हुआ होगा कि कितना बेहतर होता यदि मैं इस मकान को भी उतने ही उत्‍साह व लगन के साथ बनाता जितने आज से पहले तक बनाए थे।

इस छोटी सी लघुकथा का Moral ये है कि काम चाहे पहला हो या आखिरी, यदि उसे स्‍वीकार किया है, तो पूरे मन से पूरा करना चाहिए अन्‍यथा उस काम को अस्‍वीकार ही कर देना चाहिए, ताकि जिन्‍दगी भर के लिए कोई पछतावा न रह जाए।