महावाक्य है तत्त्वमसि : ओशो


महावाक्य है तत्त्वमसि : ओशो

तत्त्वमसि का अर्थ है, वह तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह महावाक्य है। महावाक्य का अर्थ होता है कि अगर इस एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।
फिर किसी शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है, और किसी वेद और किसी कुरान और बाइबिल की कोई जरूरत नहीं है। तत्त्वमसि पर्याप्त वेद है। इस एक वाक्य का कोई ठीक से श्रवण कर ले, मनन कर ले, निदिध्यासन कर ले, समाधि कर ले, तो किसी और शास्त्र की कोई जरूरत नहीं है।

महावाक्य का अर्थ है: पुंजीभूत, जिसमें सब आ गया हो। यह महावाक्य आध्यात्मिक केमिस्ट्री का फार्मूला है। इसमें तीन बातें कही हैं तत्, वह, त्वम्, तू; दोनों एक हैं -- तीन बातें हैं। वह और तू एक हैं, बस इतना ही यह सूत्र है। लेकिन सारा वेदांत, सारा अनुभव ऋषियों का, इन तीन में आ जाता है। यह जो गणित जैसा सूत्र है वह - अस्तित्व, परमात्मा और तू वह जो भीतर छिपी चेतना है वह, ये दो नहीं हैं, ये एक हैं। इतना ही सार है समस्त वेदों का, फिर बाकी सब फैलाव है।
इसलिए इस तरह के वाक्य को उपनिषदों में महावाक्य कहा गया है। इस तरह के वाक्य पूर्ण मौन में सुने जाने चाहिए।
इसलिए हजारों साल तक भारत में ऋषियों का आग्रह रहा कि जो परम ज्ञान है, वह लिखा न जाए। उनका आग्रह बड़ा कीमती था। लेकिन उसे पूरा करना असंभव था। लिखना पड़ा।
बहुत लोग, विशेषकर भाषाशास्त्री, लिंग्विस्ट सोचते हैं कि चूंकि लिपि नहीं थी, लिखने का उपाय नहीं था, इसलिए बहुत दिन तक वेद और उपनिषद नहीं लिखे गए।


वे गलत सोचते हैं। क्योंकि जो तत्त्वमसि जैसा अनुभव उपलब्ध कर सकते थे, जो इस महावाक्य को अनुभव में ला सकते थे, वे लिखने की कला न खोज लेते, यह असंभव मालूम पड़ता है।
लिखने की कला तो थी, लेकिन वे लिखने को राजी नहीं थे। क्यों? क्योंकि ऐसे महावाक्य लिख दिए जाएं, तो हर कोई हर किसी हालत में पढ़ लेता है। और पढ कर इस भ्रांति में पड़ जाता है कि समझ गए।
ये वाक्य किसी विशेष गुण, किसी विशेष अवस्था, चित्त की कोई विशेष परिस्थिति में ही सुनने योग्य हैं। तभी ये प्राणों में प्रवेश करते हैं। हर कभी सुन लेने पर खतरा है। खतरे दो हैं एक तो यह याद हो जाएगा, और लगेगा मैंने जान लिया, और दूसरा खतरा यह है कि इस जानकारी के कारण आप शायद ही कभी उस मनःस्थिति को बनाने की तैयारी करें, जिसमें इसे सुना जाना चाहिए था। बीज डालने का वक्त होता है, समय होता है, मौसम होता है, घड़ी होती है, मुहूर्त होता है। और ये बीज तो महाबीज हैं। इसलिए गुरु इन्हें शिष्य के कान में बोलता है।।

(उपनिषद - अध्यात्म, प्रवचन #10)