*मैं ना होता तो क्या होता...?*
*हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम से कहा कि मैंने लंका जाकर विभीषण का घर नहीं देखा था, तब तक मुझे लगता था कि लंका में भला संत कहां मिलेंगे ? प्रभू, मैं तो समझता था कि संत सिर्फ भारत में ही होते हैं, लेकिन जब मैं लंका में सीताजी को नही ढूंढ सका और जब विभीषण ने उपाय बताया तो मैंने सोचा कि जिन्हें मैं प्रयत्न करके नहीं ढूंढ सका, उनका पता तो इन लंका वाले संत ने ही बता दिया, शायद प्रभु ने यही दिखाने के लिए भेजा था कि इस दृश्य को भी देख लो !*
*अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर मैं गदगद् हो गया ! ओह प्रभू आपने कैसी शिक्षा दी, यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता ?*
*बहुधा व्यक्ति को ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मुझे भी लगता कि यदि मैं न होता तो सीताजी को कौन बचाता ? पर आपने उन्हें बचाया ही नही, बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया, जिसको इस बात की प्रसन्नता होनी चाहिए कि सीता मरे तो मेरा भय दूर हो, तब मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं, किसी का कोई महत्व नहीं है !*
*आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा तो मैं बड़ी चिंता में पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है तो मैं क्या करुं ? पर जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिये दौड़े तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया !*
*आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की ही बात सच थी, वरना *लंका को जलाने के लिए मैं कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहां आग ढूंढता, पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया, जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !*
*इसलिये याद रखें, कि संसार मे जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मैं न होता तो क्या होता...?*
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